मेरे मन का मधुबन
मेरे मन के मधुबन में, हुए पुष्पित रंग बिरंगे फूल
चहुँ और है हरियाली, और नहीं है कोई शूल
नील गगन में है अच्छादित, श्याम वर्ण मेघ
वसंत ऋतु का है वर्चस्व, शीतल पवन पर नहीं है वेग
ओस कि चादर है बिछी, और पंछी कर रहे हैं शोर
प्रातःकाल कि बेला है, और हो रही है भोर
नभ करती धरती का चुम्बन, और न दिख रही है छोर
इस निश्छल धवल कि बेला को देख, नाचे सुमन मन मोर
शनै शनै खग, मृग, और पपीहा करने लगे हैं शोर
मेढक लगे करने टर टर, नाचत हँसनी और मोर
कलियाँ होने लगी प्रष्फुटित, और लगे करने हैं भंवरे
गुंजन
नई भावनाओं और कामनाओं का, होने लगा है सृजन
सूरज की किरणों की आभा से, होने लगी है स्वेत नभ
मंडल
दूर से दिख रही है आते हुए एक तत्त्वदर्शी, हाथ
में लिए कमंडल
उनके चेहरे पर है तेज, और होठों पर मुस्कान
आ समीप दिया उन्हों ने, प्रेम पूर्वक अपनी पहचान
कहने लगे वत्स तू कहाँ था, किस अतीत के गर्त में
छुपा था
मैंने ढूंढा तुमको एक हजार वर्ष तक
और मिलने पर कहते हो, शेष कर लूं साधना रुको तब
तक
मैंने किया है प्रतीक्षा इतने जन्मों तक, थोडी और
कर लेंगे तब तक
कहकर वो मुस्काए, और दिया वो दान
जो है अति दुर्लभ इस जन्म में पाना,सदगुरु कृपा
वरदान
सुमन सरन सिन्हा
मार्च २३, २००९